पुरुषोतम मास माहात्म्य/अधिक मास माहात्म्य अध्याय– 12
Adhik mas chapter-12
नारदजी बोले:-
जब भगवान् शंकर चले गये तब हे प्रभो! उस बाला ने शोककर क्या किया! सो मुझ विनीत को धर्मसिद्धि के लिए कहिये ॥ १ ॥
इसी प्रकार राजा युधिष्ठिर ने भगवान् कृष्ण से पूछा था सो भगवान् ने राजा के प्रति जो कहा सो हम तुमसे कहते हैं सुनो ॥ २ ॥
श्रीकृष्ण बोले:-
हे राजन! इस प्रकार जब शिवजी चले गये तब वह बाला प्रभावित हो गयी और लम्बे श्वािस लेती हुई, बड़ी डरी और वह कृशोदरी अश्रुपातपूर्वक रोने लगी ॥ ३ ॥
हृदयाग्नि से उठी हुई ज्वाला से जलते हुए अंगवाली वह तपस्विनी कन्या वनाग्नि से जले हुए पत्ते वाली लता की तरह हो गयी ॥ ४ ॥
दुःख और ईर्ष्या को प्राप्त उस कन्या का बहुत समय व्यतीत हो गया। जिस प्रकार चूहे के बिल में घुसकर आक्रमण करके सर्प उसे वश में कर लेता है उसी प्रकार उपर्युक्त शोचनीय अवस्था को प्राप्त उस तपस्विनी बाला पर उस प्रभु काल ने आक्रमण कर उसे वश में कर लिया ॥ ५-६ ॥
वर्षा ऋतु में मेघ से घिरे हुए आकाश में बिजली चमक कर जैसे नष्ट हो जाती है उसी प्रकार तपस्या से जले हुए पापवाली वह कन्या अपने आश्रम में मर गयी ॥ ७ ॥
उसी समय धर्मिष्ठ यज्ञसेन नामक राजा ने बड़ी सामग्रियों से युक्त उत्तम यज्ञ किया ॥ ८ ॥
उस यज्ञकुण्ड से सुवर्ण के समान कान्ति वाली एक लड़की उत्पन्न हुई । वही कुमारी द्रुपदराज की कन्या के नाम से संसार में विख्यात हुई ॥ ९ ॥
पहिले जो मेधावी ऋषि की कन्या थी वही सब लोकों में द्रौपदी नाम से प्रसिद्ध हुई । उसी को स्वयंवर में मछली को वेधकर ॥ १० ॥
भीष्म कर्ण आदि बहुत से राजाओं को तृण के समान कर क्षुभित रजमण्डदल में अर्जुन ने पांचाली को पाया ॥ ११ ॥
हे मुने! वही द्रौपदी दुष्ट दुःशासन द्वारा बाल पकड़ कर खींची गयी और उसे हृदय विदीर्ण करने वाले वचन सुनाये गये ॥ १२ ॥
पुरुषोत्तम की अवहेलना करने के कारण मैंने भी उसकी उपेक्षा की। जब वह मेरे में स्नेह करके मेरा नाम बराबर लेने लगी ॥ १३ ॥
हे दामोदर! हे दयासिन्धो! हे कृष्ण! हे जगत्पते! हे नाथ रमानाथ! हे केशव! हे क्लेशनाशन! ॥ १४ ॥
मेरे माता, पिता, भ्रातृवर्ग, सहेलियें, बहिन, भाञ्जे, बन्धु, इष्ट, पति आदि कोई भी नहीं है। हे हृषीकेश! मेरे तो आप ही सब कुछ हैं ॥ १५ ॥
हे गोविन्द! हे गोपिकानाथ! दीनबन्धो! दयानिधे! दुःशासन से आक्रमण की गई मुझे क्या आप नहीं जानते ॥ १६ ॥
यद्यपि पहली पुकार में मैंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया था, पर जब दुःशासन से पराभूत होकर उसने मेरा पुनः स्मरण किया ॥ १७ ॥
तब गरुड़ पर चढ़ शीघ्र वहाँ पहुँच कर मैंने हे राजन्! उसे बहुत से वस्त्रों से परिपूर्ण कर दिया ॥ १८ ॥
सदा मेरे में स्नेह करने वाली, मैं ही हूँ प्राण जिसके ऐसी, सदा मेरे भजन में परायण, मेरी अत्यन्त प्रिया, सती, सखी, मुझको प्राणों के समान होने पर भी पुरुषोत्तम की अवहेलना करने के कारण उसकी उपेक्षा करनी पड़ी। पुरुषोत्तम का तिरस्कार करने वाले का मैं पतन कर देता हूँ ॥ १९-२० ॥
यह पुरुषोत्तम मुनियों और देवताओं से भी सेव्य है, फिर समस्त कामनाओं को देने वाला यह पुरुषोत्तम मनुष्यों द्वारा तो सेवनीय है ही ॥ २१ ॥
अतः आगामी पुरुषोत्तम की आराधना करो। चौदह वर्ष के सम्पूर्ण होने पर तुम्हारा कल्याण होगा ॥ २२ ॥
हे पाण्डुनन्दन! जिन पुरुषों ने द्रौपदी के बालों को खींचते हुए देखा है, हे महाराज! उनकी स्त्रियों की अलकों को मैं क्रोध से काटूँगा ॥ २३ ॥
दुर्योधन आदि राजाओं को यमराज के भवन को पहुँचाऊँगा, बाद तुम समस्त शत्रुओं का नाश कर राजा होंगे ॥ २४ ॥
न मेरे को लक्ष्मी प्रिय, न मेरे को बलभद्र जी प्रिय और न वैसे मेरे को देवी देवकी, न प्रद्युम्न, न सात्यकि प्रिय हैं ॥ २५ ॥
जैसे मेरे को भक्त प्रिय हैं वैसा कोई प्रिय नहीं है। जिसने मेरे भक्तों को पीड़ित किया उससे मैं सदा पीड़ित रहता हूँ ॥ २६ ॥
हे पाण्डव! उसके समान मेरा अन्य कोई शत्रु नहीं है, उसके अपराध का फल देने वाला यमराज है क्योंकि वह दुष्ट दण्ड देने के लिए भी मेरे से देखने के योग्य नहीं है ॥ २७ ॥
श्रीनारायण बोले :-
श्रीकृष्ण ने उन पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरादिकों को और द्रौपदी को समझा कर द्वारका जाने की इच्छा से कहा ॥ २८ ॥
हे राजन्! वियोग से व्याकुल द्वारका पुरी को आज जाऊँगा जहाँ पर महाभाग वसुदेव जी, हमारे बड़े भाई बलदेवजी ॥ २९ ॥
हमारी माता देवी देवकी तथा गद, साम्ब आदि और आहुक आदि यादव, रुक्मिणी आदि जो स्त्रियाँ हैं ॥ ३० ॥
दर्शन की उत्कण्ठा वाले वे सब हमारे आगमन की कामना से टकटकी लगाकर हमारा ही चिन्तन करते होंगे ॥ ३१ ॥
श्रीनारायण बोले –
इस प्रकार कहते हुए देवेश श्रीकृष्ण के गमन को जानकर पाण्डु-पुत्र किस प्रकार गद्गद कण्ठ से बोले ॥ ३२ ॥
जिस प्रकार जल में रहने वालों का जीवन जल है उसी तरह हम लोगों के जीवन तो आप ही हैं। हे जनार्दन! थोड़े ही दिनों के बाद फिर दर्शन हों ॥ ३३ ॥
पाण्डवों के नाथ हरि हैं और तीनों लोको में दूसरा कोई नहीं है, इस प्रकार सामने ही सब लोग कहते हैं अतः हम लोगों की हमेशा रक्षा करें ॥ ३४ ॥
हे जगदीश्वमर! हम लोग आप के हैं, भूलियेगा नहीं। हम लोगों के चित्तरूपी भ्रमरों का जीवन आपका चरण कमल ही है ॥ ३५ ॥
आप ही हमारे आधार हैं, इसलिए बारम्बार हम सब प्रार्थना करते हैं। इन पाण्डुपुत्रों के निरन्तर इस तरह कहते रहने पर श्रीकृष्णचन्द्र ॥ ३६ ॥
प्रेमानन्द में मग्न होकर धीरे-धीरे रथ पर सवार होकर पीछे चलने वाले पाण्डुपुत्रों को लौटाकर द्वारका पुरी को गये ॥ ३७ ॥
श्रीनारायण बोले:-
इसके बाद श्रीद्वारकानाथ श्रीकृष्णचन्द्र के द्वारका पुरी जाने पर, राजा युधिष्ठिर अपने छोटे भाइयों के साथ तप करते हुए तीर्थों मे भ्रमण करते भये ॥ ३८ ॥
हे ब्रह्मन्! नारद! भगवान् के प्रिय पुरुषोत्तम मास में मन लगाकर और श्रीकृष्णचन्द्र के वचनों का स्मरण करते हुए, अपने छोटे भाइयों से तथा द्रौपदी से राजा युधिष्ठिर बोले – ॥ ३९ ॥
अहो! पुरुषोत्तम मास में होने वाले अत्यन्त उग्र पुरुषोत्तम का माहात्म्य सुना है, पुरुषोत्तम भगवान् के पूजन किये बिना सुख किस तरह मिलेगा? ॥ ४० ॥
इस भारतवर्ष में वह धन्य है, वह पूज्य है, वही श्रेष्ठ है, जो अनेक प्रकार के नियमों से पुरुषोत्तम भगवान् का पूजनार्चन किया करता है ॥ ४१ ॥
इस तरह समस्त तीर्थों में भ्रमण करते हुए पाण्डुपुत्र पुरुषोत्तम मास के आने पर विधिपूर्वक व्रत करते भये ॥ ४२ ॥
हे मुने! नारद! व्रत के अन्त में चौदह वर्ष के पूर्ण होने पर श्रीकृष्ण भगवान् की कृपा से अतुल निष्कण्टक राज्य को प्राप्त किये ॥ ४३ ॥
पूर्वकाल में सूर्यवंश में होने वाला दृढ़धन्वा नाम का राजा पुरुषोत्तम मास के सेवन से बड़ी लक्ष्मी ॥ ४४ ॥
पुत्र पौत्र का सुख और अनेक प्रकार के भोगों को भोगकर, योगियों को भी दुर्लभ जो भगवान् का वैकुण्ठ लोक है वहाँ गया ॥ ४५ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! नारद! इस पुरुषोत्तम मास के अतुल माहात्य को करोड़ों कल्प समय मिलने पर भी मैं कहने को समर्थ नहीं हूँ ॥ ४६ ॥
सूतजी बोले :-
हे विप्र लोग! पुरुषोत्तम मास का माहात्म्य कृष्णद्वैपायन (व्यास जी) से मैंने सुना है तथापि कहने को मैं समर्थ नहीं हूँ ॥ ४७ ॥
इस पुरुषोत्तम मास के अखिल माहात्म्य को स्वयं नारायण जानते हैं या साक्षात् वैकुण्ठवासी हरि भगवान् जानते हैं ॥ ४८ ॥
परन्तु ब्रह्मादि देवताओं से नमस्कार किये जाने वाले हैं चरणपीठ जिनके, ऐसे गोलोकनाथ श्रीकृष्णचन्द्र भी अपनाये हुए पुरुषोत्तम मास का सम्पूर्ण माहात्म्य नहीं जानते हैं तो मनुष्य कहाँ से जान सकता है? ॥ ४९ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे पुरुषोत्तमव्रतोपदेशो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
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