पुरुषोतम मास माहात्म्य/अधिक मास माहात्म्य अध्याय– 31
Adhik Mas chapter-31
सूतजी बोले:-
हे विप्रो! नारद मुनि इस प्रकार पतिव्रता के धर्म को सुनकर कुछ पूछने की इच्छा से पुरातन नारायण मुनि से बोले ॥ १ ॥
नारदजी बोले :-
हे बदरीपते! आपने समस्त दानों में अधिक फल को देने वाला काँसा के सम्पुट का दान कहा है, इसे स्पष्ट करके मुझसे कहिये ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले :-
हे ब्रह्मन्! प्रथम एक समय पार्वती ने इस व्रत को किया था। उस समय श्रीमहादेवजी से पूछा कि हे महादेवजी! इस व्रत में उत्तम दान क्या देना चाहिये ॥ ३ ॥
जिसके देने से मेरा पुरुषोत्तम व्रत सम्पूर्ण हो जावे। हे दयासिन्धो! समस्त प्राणियों के कल्याण के लिये उस दान को मेरे से कहिये ॥ ४ ॥
पार्वती की वाणी सुन शम्भु ने श्रीपुरुषोत्तम भगवान् का ध्यान करते हुए मन में इस बात का विचार कर समस्त लोक के हित को चाहने वाली उमा से कहा ॥ ५ ॥
श्रीमहादेवजी बोले :-
हे अपर्णे! श्रीपुरुषोत्तम मास में व्रतविधि को पूर्ण करने के योग्य वेद में कहीं पर भी कोई दान नहीं है ॥ ६ ॥
हे गिरिसुते! जो-जो उत्तम दान कहे हैं वे सब श्रीकृष्ण के प्रिय पुरुषोत्तम मास में गौण हो गये हैं ॥ ७ ॥
हे सुन्दरि! कहीं भी ऐसा दान नहीं है जिसको श्रीपुरुषोत्तम मास में करने से तुम्हारा व्रत पूर्ण हो ॥ ८ ॥
हे अंगने! इस पुरुषोत्तम मास व्रत की पूर्ति के लिये सम्पुटाकार ब्रह्माण्ड का दान है उसको देना चाहिये ॥ ९ ॥
हे वरानने! वह दान किसी से देने योग्य नहीं है। इस ब्रह्माण्ड के बदले में काँसे का सम्पुट बनाकर ॥ १० ॥
हे प्रिये! उसके भीतर प्रसन्नता से ३० मालपूआ रखकर, सात तन्तु से बाँध कर, विधिपूर्वक पूजन करके ॥ ११ ॥
व्रतपूर्ति के लिये विद्वान् ब्राह्मण को देवे। यदि विभव हो तो तीस सम्पुट देवे ॥ १२ ॥
धूर्जटि भगवान् के उपकारक और सुन्दर वचन को सुनकर पार्वती प्रसन्न हो गईं ॥ १३ ॥
हे नारद! पार्वती तीस काँसे के सम्पुट को विद्वान् ब्राह्मणों को देकर तथा व्रतविधि को पूर्ण कर अत्यन्त प्रसन्न हुईं ॥ १४ ॥
सूतजी बोले :-
हे विप्र लोग! इस प्रकार नारद मुनि नारायण की वाणी सुन अत्यन्त तृप्त हो बारम्बार नमस्कार कर पुनः बोले ॥ १५ ॥
नारद मुनि बोले:-
सब साधनों से श्रेष्ठ यह पुरुषोत्तम मास है। इसका उत्तम माहात्म्य सुन मेरे को ऐसा निश्चय हुआ ॥ १६ ॥
केवल भक्ति पूर्वक श्रवण करने से भी मनुष्यों के महान् पापों का क्षय हो जाता है तो श्रद्धा और विधि से करनेवाले का फिर कहना ही क्या है? ऐसा मेरा मत है ॥ १७ ॥
इसके बाद मेरे को सुनने को कुछ भी शेष नहीं रहा है; क्योंकि अमृत से तृप्त मनुष्य दूसरे जल की इच्छा नहीं करता है ॥ १८ ॥
सूतजी बोले :-
मुनिश्रेष्ठ विप्र नारदजी इस प्रकार कह कर चुप हो गये और प्राचीन मुनि नारायण के श्रेष्ठ चरणकमल को नमस्कार किये ॥ १९ ॥
जो प्राणी इस भारतवर्ष में जन्म को प्राप्त कर उत्तम श्रीपुरुषोत्तम मास का सेवन नहीं करते हैं, न श्रवण करते हैं, वे मनुष्य गृह में आसक्त रहने वाले मनुष्यों में अधम हैं ॥ २० ॥
इस संसार में जन्म और मरण को प्राप्त होते हैं और जन्म-जन्म में पुत्र, मित्र, स्त्री, श्रेष्ठ जन के वियोग से दुःख के भागी होते हैं ॥ २१ ॥
हे द्विजश्रेष्ठ! इस पुरुषोत्तम मास में असत् शास्त्रों को नहीं कहे, दूसरे की शय्या पर शयन नहीं करे, कभी असत्य बातचीत नहीं करे ॥ २२ ॥
कभी दूसरे की निन्दा नहीं करे, परान्न को नहीं खाये और दूसरे की क्रिया को नहीं करे ॥ २३ ॥
शठता त्याग ब्राह्मण को दान देवे। धन रहने पर शठता करने वाला रौरव नरक को जाता है ॥ २४ ॥
प्रतिदिन ब्राह्मण को भोजन देवे और व्रत करने वाला दिन के चार बजने पर भोजन करे ॥ २५ ॥
वे पुरुष धन्य हैं जो इस लोक में भक्ति और विधान से प्रेमपूर्वक पुरुषोत्तम भगवान् का नित्य पूजन करते हैं ॥ २६ ॥
इन्द्रद्युम्न, शतद्युम्न, यौवनाश्व् और भगीरथ राजा पुरुषोत्तम का आराधन कर भगवान् के समीप चले गये ॥ २७ ॥
इसलिये समस्त साधनों से श्रेष्ठ, समस्त अर्थदायक पुरुषोत्तम भगवान् का सब तरह से सेवन करना चाहिये ॥ २८ ॥
गोवर्धनधारी, गोपस्वरूप, गापाल, गोकुल के उत्सवस्वरूप, ईश्वहर, गोपिकाओं के प्रिय, गोविन्द भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २९ ॥
प्रथम कौण्डिन्य ऋषि ने इस मन्त्र को बार-बार कहा कि जो इस मन्त्र का भक्ति से जप करता हुआ पुरुषोत्तम मास को व्यतीत करता है वह पुरुषोत्तम भगवान् को प्राप्त करता है ॥ ३० ॥
नवीन मेघ के समान श्याम, दो भुजावाले, सुरलीधर, शोभमान, पीतवस्त्रधारी, सुन्दर, राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान् का ध्यान करे ॥ ३१ ॥
पुरुषोत्तम भगवान् का ध्यान और पूजन करता हुआ पुरुषोत्तम मास को व्यतीत करे। इस प्रकार जो मनुष्य भक्ति से व्रत करता है वह अपने समस्त अभीष्ट को प्राप्त करता है ॥ ३२ ॥
हे तपोधन! यह गुप्त से भी गुप्त व्रत जिस किसी को नहीं कहना चाहिये। मैंने भी किसी के सामने नहीं कहा है ॥ ३३ ॥
हे विप्रलोग! अभीष्ट फलदायक, पवित्र इस पुराण को आदरपूर्वक सर्वदा श्रवण करना चाहिये। एक श्लोाकमात्र के श्रवण से मनुष्यों के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ३४ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! गंगादि समस्त तीर्थों में स्नान से जो फल मिलता है वह फल पुरुषोत्तम मास माहात्म्य के श्रवण से मिलता है ॥ ३५ ॥
मनुष्य पृथिवी की प्रदक्षिणा करता हुआ जिस पुण्य को प्राप्त करता है वह पुण्य पुरुषोत्तम मास माहात्म्य के श्रवण से होता है ॥ ३६ ॥
ब्राह्मण ब्रह्मतेज वाला, क्षत्रिय पृथिवी का मालिक, वैश्य धन का मालिक होता है और शूद्र श्रेष्ठ हो जाता है ॥ ३७ ॥
और जो दूसरे पशुचर्या में तत्पर किरात, हूण आदि हैं वे सब पुरुषोत्तम के माहात्म्यश्रवण से मुक्ति को प्राप्त करते हैं ॥ ३८ ॥
जो पुरुषोत्तम मास के माहात्म्य को लिख कर और वस्त्र-आभूषण आदि से भूषित कर विधिपूर्वक ब्राह्मण को देता है ॥ ३९ ॥
वह तीनों कुलों का उद्धार करके जहाँ पर गोपिकाओं के समूह से घिरे हुए पुरुषोत्तम भगवान् हैं ऐसे दुर्लभ गोलोक को जाता है ॥ ४० ॥
जो इस उत्तम माहात्म्य को लिखकर गृह में रखता है उसके गृह में समस्त तीर्थ निरन्तर विलास करते हैं ॥ ४१ ॥
अनन्त पुण्य को देने वाले महीनों में श्रेष्ठ पुरुषोत्तम मास के माहात्म्य को सुन समस्त मुनि लोग आश्चैर्य करने लगे और वे भगवान् की चरण-सेवा में अत्यन्त निपुण मुनि लोग विनयपूर्वक सूतजी के पुत्र से बोले ॥ ४२ ॥
ऋषि लोग बोले :-
हे सूत! हे सूत! हे महाभाग! हे महामते! तुम धन्य हो। तुम्हारे मुख से अमृत पान कर हम सब अत्यन्त कृतार्थ हो गये ॥ ४३ ॥
हे सूत! हे पौराणिकों में शिरोमणि! तुम सदा चिरंजीवी होवो और तुम्हारी कीर्ति निरन्तर जगत् में पवित्रों को भी पवित्र करने वाली हो ॥ ४४ ॥
तुम्हारे मुखकमल से निकले हुए श्रीमुकुन्द के कथामृत के पान में लोल नैमिषारण्य में स्थित, मुनीन्द्रों द्वारा आपके लिए अत्यन्त पूज्य ब्रह्मा का आसन दिया गया ॥ ४५ ॥
जब तक विष्णु भगवान् की कीर्ति पृथिवी पर रहे तब तक इस पृथिवी पर मुनियों के समाज में हरि भगवान् की सुन्दर कथा को आप कहते रहें ॥ ४६ ॥
इस प्रकार ब्राह्मणों के आशीर्वाद को ग्रहण कर और समस्त ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा और नमस्कार कर अपने कृत्य को करने के लिए गंगा के तट पर सूत जी के पुत्र गये ॥ ४७ ॥
नैमिषारण्य में स्थित सब लोग परस्पर कहने लगे कि यह प्राचीन पुरुषोत्तम मास का श्रेष्ठ और दिव्य माहात्म्य इच्छित अर्थों को देने में कल्पवृक्ष ही है ॥ ४८ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे पुरुषोत्तममासमाहात्म्यश्रवणफलकथनं नाम एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥ इति ॥
निर्मल मन से राधा कृष्ण का ध्यान करें। इस अति पावन -मंगल कारी अधिक मास में। ज्यादा कुछ न कर सके तो सिर्फ उनका नाम और उनका ध्यान करे। नाम आप कोई भी काम करते हुए अपने मन में ले सकते है। ज्यादा मुश्किल मन्त्र जपने में परेशानी हो तो सिर्फ “श्री राधे” का जाप करिये। आपकी सारी मुश्किलें आसान हो जाएँगी। गुप्त रूप से प्रेम रुपी सरकार को मनाई वो मान गए तो आपका जीवन प्रेम -खुशियों और वैभवता से भर देंगे।
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