दशनामी संप्रदाय

दशनामी संप्रदाय

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Description

दशनामी संप्रदाय( dashanami sampradaya ) संन्यासी हिन्दू शैव तपस्वियों का एक सम्प्रदाय है, जिसकी स्थापना आठवीं शताब्दी के प्रसिद्ध दार्शनिक शंकराचार्य द्वारा की गई थी। यह एकांदी संन्यासियों या भटकने वाले त्यागी की परंपरा थी। जिन्होंने एक ही सहारा रखा। उन्होंने अद्वैत वेदांत परंपरा को अपने प्राकृतिक गुणों में स्वयं के अस्तित्व के रूप में वकालत करने का संकेत दिया शंकराचार्य ने दस नामों के समूह के तहत इस सम्प्रदाय की स्थापना की।

  • उन्होंने इन दस नामों के भिक्षुओं को चार मठों या मठों के अंतर्गत संगठित किया, पश्चिम में द्वारका, पूर्व में पुरी, दक्षिण में शृंगेरी और उत्तर में बद्री। प्रत्येक गणित का नेतृत्व उनके मुख्य चार शिष्यों में से एक करता था। दक्षिण में नाम पुरी, सरस्वती और भारती हैं, पश्चिम में तीर्थ और आश्रम हैं, पूर्व में वान और अरण्य हैं और उत्तर में गिरि, पर्वत और सागर हैं।
  • उन्होंने वैदिक और योगिक सिद्धांतों का अभ्यास किया और उनमें से कई ब्रह्मचारी थे, हालांकि लाहिड़ी महाशय और श्रीयुक्तेश्वर गिरि जैसे कुछ गृहस्थ शिष्य थे।
  • कुछ चरम एककांडियां नागा साधु हैं जो नग्न होकर चले गए हैं और आमतौर पर कुंभ मेलों में प्रमुख हैं।

दस सम्प्रदाय :-

‘दशनामी संन्यासी’ शंकराचार्य द्वारा स्थापित 10 सम्प्रदायों (‘दशनाम’- 10 नाम) से संबंधित हैं। 10 सम्प्रदाय निम्नलिखित हैं-

  1. अरण्य
  2. आश्रम
  3. भारती
  4. गिरी
  5. पर्वत
  6. पूरी
  7. सरस्वती
  8. सागर
  9. तीर्थ
  10. वन

दस प्रकार के रोगों और उनसे जुड़े दस प्रकार की औषधियों की जानकारी के परिप्रेक्ष्य में दसनामी सम्प्रदाय को समझना चाहिये।

  1. अरण्य :- जहाँ रेन फोरेस्ट के साथ-साथ चारागाह भी होते हैं और मांसाहारी तथा हिंसक पशु भी रहते हैं वह क्षेत्र अरण्य कहा जाता है। ऐसे स्थानों पर मूत्र रोग तथा डिहाईड्रेशन से सम्बन्धित रोग अधिक होते हैं उनका निदान एवं चिकित्सा करना इनका विषय होता है।
  2. आश्रम:- आश्रम उस स्थान को कहा जाता है जहाँ अनाथों से लेकर शोधकर्ताओं तक को आश्रय दिया जाता है। इस आश्रमों को रेज़ीडेन्शियल हॉस्पिटल भी कहा जा सकता है। यहाँ असाध्य रोगों का निदान एवं चिकित्सा होती थी।
  3. भारती :- जो लोग आहार की कमी यानी कुपोषण के शिकार होते हैं उन्हें आहार में पौष्टिक तत्वों को दिये जाने की जानकारी देने वाले भारती भ्रमणशील सन्यासी होते थे। ये लोग स्वर्ण निर्माण की विद्या भी जानते थे इस विद्या का उपयोग वहाँ करते थे जहाँ पूरे क्षेत्र में अकाल पड़ जाता था।
  4. गिरी :- गिर उन पहाड़ों का कहा जाता है जो कम ऊँचे तथा हरियाली से अच्छादित होते हैं।
  5. पर्वत :- पहाड़, गिर, मेरू  इत्यादि नाम पर्यायवाची शब्द हैं। लेकिन पर्वत उन पहाड़ों को कहा जाता है जिनकी चोटियाँ ऊँची तथा पथरीली, पठारी होती है।
  6. पूरी :- जो पुर अर्थात् परकोटे यानी घिरे हुए क्षेत्र में रहने वाले बड़े गाँवों में होने वाली बीमारियों का निदान एवं चिकित्सा करते थे।
  7. सरस्वती :- जो वर्ग नृत्य, संगीत एवं वाद्य यंत्रों को बजाने वाले तथा गायक होते हैं उनमें जोड़ों एवं मांसपेशी तंत्र के रोग होते है। उनका उपचार करना इनका विषय था।
  8. सागर :- जो वर्ग सागर किनारे रहने वाला तथा समुद्री जीवों को पकड़ कर आजीविका चलाने वाली जातीय समूहों के होते हैं उनमें कुछ विशेष प्रकार के त्वचा रोग होते हैं । उनका निदान एवं चिकित्सा इनका विषय रहा है।
  9. तीर्थ :- तीर्थाटन पर आने वाले लोग विभिन्न क्षेत्र, जातीय और आर्थिक वर्गों के होते हैं। उनमें संक्रमण से होने वाले रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है। उनका निदान एवं चिकित्सा का विषय तीर्थ सन्यासियों का था।
  10. वन :- जहाँ रेन फोरेस्ट होता है वहाँ अत्यधिक नमी के कारण पित्त के विकार से होने वाले रोग होते हैं वहाँ के लोगों के रोगों का निदान एवं चिकित्सा का काम वन करते थे।

आज जब फोरेस्ट ईकोलोजी नष्ट हो रही है तो सर्वाधिक और सर्वोच्च ज़िम्मेदारी इसी वर्ग की बनती है आज इस वर्ग में से उन गिने-चुने लोगों को हटा दिया जाये जो वयोवृद्ध हो चुके हैं तो बाक़ी बचे लोगों में से शायद ही कोई जानता होगा कि उनकी परम्परा कितनी कठोर तप की परम्परा रही हैं। बचपन से गुरू की सेवा करते हुए वनों में घूमना और औषधीय पौधों की प्रेक्टिकल जानकारी लेना और इसके साथ-साथ सेवा भाव बनाये रखना।

कि आज की मानव सभ्यता आध्यात्मिक पतन के निम्नतम स्तर पर इसलिए है कि व्यवस्था पद्धति का प्रत्येक लेन-देन काम एवं अर्थ आधारित यानी वाणिज्य आधारित हो गया है। प्रत्येक कार्य का मिशन पक्ष समाप्त हो गया है और प्रोफेशनल पक्ष हावी हो गया है।

चार मठ :-

कहते है प्रत्येक सम्प्रदाय शंकराचार्य जी के द्वारा भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम भाग में स्थापित चार मठों के साथ संबंधित हैं।ये मठ हैं-

  1. ज्योति (जोशी) मठ :- हरिद्वार के निकट बद्रीनाथ, उत्तरांचल
  2. श्रंगेरी मठ :- कर्नाटक
  3. गोवर्धन मठ:- पुरी, उड़ीसा
  4. शारदा मठ:- द्वारका, गुजरात

मठों के प्रमुखों को ‘महंत‘ कहते हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि ‘श्रंगेरी मठ‘ के प्रमुख को ‘जगद्गुरु‘ कहा जाता है। सिद्धांतों के बारे में महंतों से परामर्श किया जाता है और आम हिन्दू तथा उनके अनुयायी तपस्वी उन्हें सर्वाधिक सम्मान देते हैं।

वस्त्र या पहनावा :-

‘दशनामी संन्यासी’ विशेष प्रकार के गेरुआ वस्त्र पहनते हैं और यदि प्राप्त कर सकें तो अपने कंधे पर बाघ या शेर की खाल का आसन रखते हैं। वह माथे तथा शरीर के अन्य भागों पर श्मशान की राख से तीन धारियों का तिलक लगाते हैं और गले में 108 रुद्राक्षों की माला पहनते हैं। वे अपनी दाढ़ी बढ़ने देते हैं और बाल खुले रखते हैं, जो कंधों तक आते हैं या उन्हें सिर के ऊपर बांधते हैं।

सबसे बड़ा आकर्षण:-

कुम्भ के आयोजन में सबसे बड़ा आकर्षण दस नामी सन्यासी अखाड़ों का है। वे आदि गुरु शंकराचार्य की उस परम्परा की याद दिलाते हैं जब उन्होंने विभिन्न पन्थो में बंटे साधू समाज को संगठित किया था। कहते है तीर्थराज प्रयाग में बसी कुम्भ नगरी में धूनी रमाये बैठे दिगंबर सन्यासियों को देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल है कि वे एक सदियों पुरानी परंपरा के स्वरूप के प्रतिनिधि हैं। वो परम्परा जिसकी नींव 9वीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य ने डाली थी। वही शंकराचार्य जिन्होंने ‘जगत मिथ्या, ब्रम्ह सत्यं‘ का घोष किया था। ये वो समय था जब सनातन धर्म अलग अलग इष्ट देवो के नाम पर विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित था और एक दूसरे से शत्रुता का भाव रखता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर देवी प्रसाद दुबे के मुताबिक आदि शंकराचार्य ने अद्वैत की पुनः स्थापना की और पञ्च देवोपासना में बंटे सन्यासियों को एक किया।

नागा – अखाड़ा :-

शंकराचार्य ने इन सन्यासियों को देश भर में स्थापित चारों पीठों से जोड़ा। इन्हीं सन्यासियों का एक हिस्सा नागा हो गया। उसने आकाश को अपना वस्त्र मानकर शरीर पर भभूत मला और दिगम्बर स्वरूप में रहना शुरू कर दिया। कालांतर में सन्यासियों के अलग अलग समूह बने जिन्हें अखंड कहा गया। यही अखंड शब्द बिगड़ कर अखाड़ा बन गया।

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