निम्बार्क सम्प्रदाय, वैष्णवों सम्प्रदाय के अंतर्गत आता है। वैष्णवों के चार सम्प्रदायों में अत्यन्त प्राचीन सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय को ‘हंस सम्प्रदाय’ ‘कुमार सम्प्रदाय’, ‘चतुः सन सम्प्रदाय’, और ‘सनकादि सम्प्रदाय’ भी कहते हैं। इस सम्प्रदाय का सिद्धान्त ‘द्वैताद्वैतवाद’ कहलाता है। इसी को ‘भेदाभेदवाद’ भी कहा जाता है। इस सम्प्रदाय के आद्याचार्य श्रीसुदर्शनचक्रावतार जगद्गुरु श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य है । वैष्णव चतु:सम्प्रदाय में श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय अत्यन्त प्राचीन अनादि वैदिक सत्सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय का प्राचीन मन्दिर मथुरा में ध्रुव टीले पर स्थित बताया जाता है।
निम्बार्क सम्प्रदाय का इतिहास :-
श्री विष्णु भगवान के चौबीस अवतारों में प्रथम श्रीहंसावतार से प्रारम्भ होती है। श्रीहंस भगवान् से जिस परम दिव्य श्रीगोपाल-मन्त्रराज का गूढतम उपदेश जिन महर्षिवर्य चतु: सनकादिकों को प्राप्त हुआ, उसी का दिव्योपदो देवर्षिप्रवर श्रीनारदजी को मिला और वही उपदेश द्वापरान्त में महाराज परीक्षित के राज्यकाल में श्रीनारदजी से श्रीनिम्बार्क भगवान् को प्राप्त हुआ। सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण की मंगलमयी पावन आज्ञा शिरोधार्य कर चक्रराज श्रीसुदर्शन ने ही इस धराधाम पर भारतवर्ष के दक्षिण में महर्षिवर्य श्रीअरूण के पवित्र आश्रम में माता जयन्तीदेवी के उदर से श्रीनियमानन्द के रूप में अवतार धारण किया।
अल्पवय में ही माता जयन्ती, महर्षि अरूण के साथ उत्तर भारत में व्रजमण्डल स्थित गिरिराज गोवर्धन की तलहटी में आपने निवास किया। देवर्षिप्रवर श्रीनारदजी से वैष्णवी दीक्षा लिया और वही पंचपदी विद्यात्मक श्रीगोपालमन्त्रराज का पावन उपदो तथा श्रीसनकादि संसेवित श्रीसर्वेश्वर प्रभु, जो सूक्ष्म शालग्राम स्वरूप दक्षिणावर्ती चक्रांकित है, उनकी अनुपम सेवा प्राप्त हुई। यह सेवा श्रीहंस भगवान् से श्रीसनकादिकों को और इनसे श्रीनारदजी को मिली, जो आगे चलकर द्वापरान्त में श्रीनिम्बार्क भगवान् को प्राप्त हुई। वही सेवा अद्यावधि अखिल भारतीय श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ में आचार्य परम्परा से चली आरही है। श्रीसुदर्शनचक्रराज ही नियमानन्द के रूप में इस भूतल पर प्रकट हुए और आप ही श्रीनिम्बार्क नाम से परम विख्यात हुए।
संस्थापक:- निम्बार्काचार्य
उपास्य देव:-
इस संप्रदाय के परमाराध्य और परमोपास्य युगल रूप राधा-कृष्ण हैं। श्रीकृष्ण सर्वेश्वर है और राधा सर्वेश्वरी। श्रीकृष्ण आनन्द स्वरूप है और राधा आल्हाद-स्वरूपिणी। राधा का स्वरूप श्रीकृष्ण के स्वरूप के सर्वथा अनुरूप माना गया है। धर्मोपासना में राधा की यह महत्ता निम्बार्क संप्रदाय में ही प्रथम बार स्वीकृति हुई थी। श्री निम्बार्काचार्य के दशश्लोकी के प्रसिद्ध श्लोक में राधा के इसी महत्तम स्वरूप का स्मरण किया गया है-
इस संप्रदाय में राधाकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक सर्वेश्वर शालिग्राम की प्रमुख रूप से सेवा पूजा होती है। इस संप्रदाय का प्रमुख केन्द्र राजस्थान का सलेमाबाद है। मथुरा के ध्रुव टीला और नारद टीला नामक प्राचीन स्थलों पर इस संप्रदाय के मन्दिर और आचार्यों की समाधियाँ है। वृन्दावन इसका केन्द है।
व्यापकता:- निम्बार्क सम्प्रदाय के लोग विशेषकर उत्तर भारत में ही रहते हैं।
श्रीनिम्बार्क नाम :-
श्रीब्राजी ने व्रज में गिरिराज के निकटवर्ती आश्रम में सूर्यास्त होने पर भी नियमानन्द से निम्बवृक्ष पर सूर्य दर्शन कराके उनका भोजनादि से आतिथ्य ग्रहण किया, जिससे श्रीब्राजी ने उन्हें श्रीनिम्बार्क नाम से सम्बोधित किया। इसी से श्रीनिम्बार्क नाम से ही विश्व विख्यात हुए। नारद जी ने श्रीनिम्बार्क को राधाकृष्ण की युगल उपासना एवं स्वाभाविक द्वैताद्वैत सिद्धान्त का परिज्ञान कराया और स्वयं-पाकिता एवं अखण्ड नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रतादि नियमों का विधिपूर्वक उपदेश किया
द्वैताद्वैत नामक सिद्धान्त :-
निम्बार्काचार्य ने प्रस्थानत्रयी पर भाष्य रचना कर स्वाभाविक द्वैताद्वैत नामक सिद्धान्त का प्रतिष्ठापन किया । राधाकृष्ण की श्रुति-पुराणादि रसमयी मधुर युगल उपासना का आपने सूत्रपात कर इसका प्रचुर प्रसार किया ।
श्रीनिम्बार्क के पट्टशिष्य पाञ्चजन्य शंखावतार श्री श्रीनिवासाचार्यजी ने निम्बार्काचार्य कृत वेदान्तपारिजातसौरभ नाम से प्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य पर वेदान्तकौस्तुभभाष्य की वृहद् रचना की । श्रीनिम्बार्क भगवान् द्वारा विरचित वेदान्तकामधेनु दशश्लोकी पर आचार्य श्रीपुर्षोत्तमाचार्य जी ने वेदान्तरत्नमंजूषा नामक वृहद भाष्य को रचा जो परम मननीय है ।
आचार्य श्रीदेवाचार्यजी :-
सोलहवें आचार्य श्रीदेवाचार्यजी से इस सम्प्रदाय में दो शाखाए चलती है – एक श्रीसुन्दरभट्टाचार्यजी की, जिन्होंने आचार्यपद अलंकृत किया और दूसरी श्रीव्रजभूषणदेवजी की जिनकी परम्परा में गीतगोविन्दकार श्रीजयदेव जी तथा महान रसिकाचार्य स्वामी श्रीहरिदास जी महाराज प्रकट हुए। पूर्वाचार्य परम्परा में जगद्विजयी श्रीकेशवकाशमीरीभट्टाचार्यजी महाराज ने वेदान्त-कौस्तुभ-भाष्य पर कौस्तुभ-प्रभा नामक विस्तृत व्याख्या का प्रणयन किया । श्रीमद्भगवद्गीता पर भी आप द्वारा रचित तत्व-प्रकाशिका नामक व्याख्या भी पठनीय है ।
परम प्रख्यात प्रमुख शिष्य रसिकाचार्य श्री श्रीभट्टदेवाचार्य जी महाराज ने व्रजभाषा में सर्वप्रथम श्रीयुगलशतक की रचना कर व्रजभाषा का उत्कर्ष बढाया। यह सुप्रसिद्ध रचना ‘व्रजभाषा की आदिवाणी’ नाम से लोक विख्यात है। इनके ही पट्टशिष्य श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज ने व्रजभाषा में ही श्रीमहावाणी की रचना कर जिस दिव्य निकुंज युगल मधुर रस को प्रवाहित किया वह व्रज-वृन्दावन के रसिकजनों का सर्व शिरोमणि देदीप्यमान कण्ठहार के रूप में अतिशय सुशोभित है । आपश्री ने जम्बू में जीव बलि लेने वाली देवी को वैष्णवी दीक्षा देकर उसे प्राणियों की बलि से मुक्त कर सात्विक वैष्णवी रूप प्रदान किया।
बंधन और मुक्ती:-
जीव का अज्ञान से उत्पन्न कर्म के संपर्क में आने के कारण उसका वास्तविक रूप विकृत और अस्पष्ट हो गया है, जो कि शुरुआती है, लेकिन जो भगवान के अनुग्रह से पूरी तरह से प्रकट हो सकता है। अज्ञानता ईश्वर का अंश है और ब्रह्मांडीय अभिव्यक्ति का आधार है अर्थात् गुणों के साथ ईश्वर का उदय होता है। उद्धार प्राप्त करने के लिए, जीव को परमपद, या प्रपत्ति, जिसकी छह(6) तरीके हैं, जो इस तरह से है :-
संकल्प (अनुकुलस्य संकल्पः )
एकनिष्ठ (प्रतिकुल्या वर्णजनम्)
विश्वास है कि भगवान रक्षा करेगा (राक्सिसयति इत्य विश्वासः )
उन्हें उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करना (गोप्तृत्व -वरनम )
भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण (आत्मनिक्षेपः )
असहाये की भावना (कार्पण्य )।
भगवान की कृपा उन लोगों तक ही पहुँचती है जो इन 6 घटकों के जो प्रपन्ना हैं जीवन में उतारा है ; और उस कृपा से भक्ति उत्पन्न होती है, जिसमें भगवान के प्रति विशेष प्रेम होता है, जो अंततः परमात्मन की प्राप्ति (संस्कार) होती है। भक्त के लिए निम्नलिखित 5 बातों का ज्ञान होना आवश्यक है:
परम आत्मा की प्रकृति,
व्यक्तिगत आत्मा की प्रकृति,
भगवान की कृपा या मोक्ष का फल, (जो सभी क्रियाओं के पूर्ण विनाश और सभी भावनाओं के परिणामस्वरूप विलुप्त होने के बाद, ब्रह्म की प्रकृति और गुणों की एक निर्बाध प्राप्ति है)
भक्ति पर परिणाम भोग की भावना,
ईश्वर की प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं की प्रकृति
पाँच साधनाएँ:-
मूल साधना में श्री राधा माधव की पूजा होती है, जिसमें श्री राधा को श्री कृष्ण के अविभाज्य अंग के रूप में देखा जाता है। निम्बार्क मुक्ति के पाँच तरीकों को संदर्भित करता है,
कर्म (अनुष्ठान क्रिया)
विद्या (ज्ञान)
उपासना या ध्यान
प्रपत्ति (प्रभु के प्रति समर्पण )
गुरुपत्सति (भगवान राधा कृष्ण के रूप में भक्ति और आत्म समर्पण)।
कर्म :-
लगातार धर्म सेवा के प्रति समर्पित रहना और आश्रम में ज्ञान प्रपात करना। जो मोक्ष का साधन है।
विद्या (ज्ञान):-
विद्या जो अपने आराध्य के करीब ले जाये। उस ज्ञान की प्राप्ति करना जीवन को सही दिशा में ले चले और जीवन सार्थक बन जाये।
उपासना या ध्यान:-
यह तीन प्रकार का होता है। सबसे पहले भगवान का ध्यान स्वयं के रूप में किया जाता है, अर्थात् भाव के आंतरिक नियंत्रक के रूप में भगवान पर ध्यान। दूसरा गैर-संवेदक के आंतरिक नियंत्रक के रूप में प्रभु का ध्यान है। अंतिम एक भगवान और स्वयं पर ध्यान है, जो भावुक और गैर-भावुक से अलग है।
प्रपत्ति (प्रभु के प्रति समर्पण ):-
श्री राधा कृष्ण के रूप में भगवान की भक्ति और आत्म-समर्पण। मोक्ष प्राप्ति की यह विधि, जिसे प्रपत्ति साधना के रूप में जाना जाता है इसे साधना (या अपरा) भक्ति – नियमों के माध्यम से भक्ति के रूप में जाना जाता है। यह बदले में पार्थ भक्ति की ओर जाता है – मधुर रस की विशेषता – भक्ति की मधुर भावनाएं जो साधना भक्ति में सिद्ध होती हैं।
गुरुपत्सति :-
गुरु के प्रति समर्पण और आत्म समर्पण। क्युकी गुरु के कृपा से ही युगल सरकार की प्राप्ति होती है।
श्री निम्बार्काचार्य ने निम्नलिखित पुस्तकें लिखीं:–