उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जनपद में गंगातट के निकट स्थित वह तीर्थ स्थल है जहाँ अब से पांच हजार वर्ष से भी पूर्व संत शुक देव जी ने राजा परीक्षित को जीवन-मृत्यु के मोह से मुक्त करते हुए जीते जी मोक्ष की प्राप्ति का ज्ञान दिया था जिसे शुक्रताल(Shukratal) कहते है। संत शुक देव जी के नाम से प्रेरित तीर्थ स्थल का नाम शुक्रताल पड़ा।
कैसे शुक्रताल एक तीर्थ स्थल के रूप में जाने जाना लगा:-
पांच हजार वर्ष से भी पूर्व इस स्थान के बारे में कोई जानता था. इस स्थान की प्रसिद्धि के पीछे एक आध्यात्मिक रहस्य छिपा है। जो यहाँ जाता है वो जान जाता है। आये जानते है इस अद्भुत तीर्थ स्थल के बारे में। महाभारत युद्ध में अभिमन्यू वीरगति को प्राप्त हुए और उनकी पत्नी उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिये अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा, परंतु श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उत्तरा के प्रार्थना करने पर उसके गर्भ की रक्षा की. उत्तरा के गर्भ में जो शिशु पल रहा था वह परीक्षित था जो आगे चलकर राजा परीक्षित के रूप में विख्यात हुआ. गर्भावस्था में ही प्रभु के दर्शन होने का सौभाग्य मात्र परीक्षित जी को ही बताया जाता है.
राजा परीक्षित को शाप मिलना
एक बार राजा परीक्षित जंगल में शिकार खेलने गये. शिकार की तलाश में घूमते-घूमते वे भूख-प्यास से पीड़ित हो गये. पानी तलाश करते-करते वे शमीक मुनि के आश्रम में पहुँचे जहां पर मुनि समाधिस्थ थे. राजा ने कई बार मुनि से पानी की याचना की, परंतु कोई उत्तर न मिलने पर, राजा ने एक मरे हुए साँप को धनुष की नोंक से उठाकर, शमीक मुनि के गले में डाल दिया, परंतु शमीक मुनि को समाधि में होने के कारण इस घटना का कोई भान ही नहीं हुआ.
शमीक मुनि के पुत्र श्रृंगी ऋषि को जब यह पता लगा तो उन्होंने गुस्से से हाथ में जल लेकर राजा को शाप दे दिया कि जिसने भी मेरे पिता के गले में मरा हुआ साँप डाला है आज से सातवें दिन इसी सांप (तक्षक) के काटने से उसकी मृत्यु हो जायेगी.
वह अपने पिता के गले में मरा हुआ सांप पड़ा देखकर जोर- जोर से रोने भी लगे. रोने की आवाज सुनकर शमीक मुनि की समाधि खुली और उन्हें सब समाचार विदित हुए. मुनि ने श्रृंगी से दुःखपूर्वक कहा कि वह हमारे देश का राजा है और समझाया कि राजा के पास सत्ता का बल होता है. राजा उस सत्ता के बल का दुरुपयोग कर सकता है, परंतु ऋषि के पास साधना का बल होता है और ऋषि को साधना के बल का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए. अत: राजा को तुम्हें शाप नहीं देना चाहिए था.
श्राप ने कैसे राजा का जीवन ही परिवर्तित कर दिया:-
राजा परीक्षित को जब श्राप के बारे में पता लगा तब उन्हें अपनी गलती का भान हुआ. वे अपने पुत्र जनमेजय को राजपाट सौंपकर हस्तिनापुर से शुकताल पहुँच गये. गंगा जी के तट पर वट वृक्ष के नीचे बैठ कर राजा परीक्षित श्रीकृष्ण भगवान का ध्यान करने लगे. वहीं परम तेजस्वी शुकदेव जी प्रकट हुए और अनेक ऋषि-मुनियों के मध्य एक शिला पर आकर बैठ गये. मातृ-शुद्धि(माता के कुल की महानता), पितृ-शुद्धि (पिता के कुल की महानता), द्रव्य-शुद्धि (सम्पत्ति का सदुपयोग) अन्न-शुद्धि और आत्म-शुद्धि (आत्मज्ञान की जिज्ञासा) एवं गुरु कृपा के कारण ही परीक्षित जी भागवत कथा सुनने के अधिकारी हुए.
हम सभी के जीवन में भी क्यों सिर्फ सात दिन है:-
परीक्षित को सात दिनों में मृत्यु का भय था. सप्ताह के सात दिन होते हैं. किसी न किसी दिन हमारी भी मृत्यु निश्चित है. परंतु ये सात वार हमारे जीवन का मार्गदर्शन करते हैं. यदि सकारात्मक रूप से देखें तो हमको इन सात वारों से सुन्दर शिक्षा मिलती है. राजा परीक्षित श्राप मिलते ही मरने की तैयारी करने लगते हैं. इस बीच उन्हें व्यासजी उनकी मुक्ति के लिए श्रीमद्भागवत्कथा सुनाते हैं. व्यास जी उन्हें बताते हैं कि मृत्यु ही इस संसार का एकमात्र सत्य है.
अक्षय वट वृक्ष के नीचे गंगा तट के समीप शुक देव जी ने राजा परीक्षित को श्रीमद भागवत सुनाया था। और वो मुक्त हो गए और सीधा भगवान चरणों में चले गए और तक्षक उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया। इसलिए तब से ये स्थान शुक्रताल के तीर्थ स्थल के रूप में जाने जाना लगा।
शुक्रताल की आध्यात्किता हर जगह प्रसिद्द है।
अक्षय वट वृक्ष आज भी अपनी विशाल जटाओं को फैलाये खड़ा है. अद्भुत रूप से फैली यह जटाएं श्रद्धालु लोग पूजते हैं
पूरा परिसर एक तीर्थ के रूप में जाना जाता है जहाँ अन्य प्राचीन मंदिर, धर्मशालायें, समागम स्थल स्थापित हैं.
उस समय नदी का प्रवाह निकट ही था परन्तु वर्तमान में इसने अपना रास्ता बदल लिया है और नदी वहां से काफी दूर हो गई है. मंदिर में जाने के लिए काफी सीढ़ियां चढ़कर ऊपर जाना होता है.
शुक्र में दुनिया की सबसे बड़ी हनुमान जी की मूर्ति स्थापना होने का रिकॉर्ड है जो चरण से मुकुट तक लगभग 65 फीट 10 इंच और सतह से 77 फीट है।
आज भी मुजफ्फरनगर से शुक्रताल जाने वाले रास्ते पर कोई विशेष ट्रैफिक नहीं मिलता. इसीलिए सूर्यास्त के बाद इस रास्ते से जाना सुरक्षित नहीं माना जाता. शुक्रताल में भी सूर्यास्त के बाद सन्नाटा छा जाता है. केवन मंदिर के पुजारी, उनके शिष्य तथा कार्यकर्त्ता ही वहां विचरण करते दिख सकते हैं. शुकदेव मंदिर परिसर में गीता प्रेस गोरखपुर का प्रकाशित धार्मिक साहित्य तथा स्मृति चिन्ह व् प्रसाद की कुछ दुकानें है, इसी प्रकार हनुमंधाम में भी यह दुकानें मिल जायेंगी जहाँ से भगवान जी को भोग लगाया जा सकता है तथा यादगार के लिए कुछ खरीददारी की जा सकती है.
शुक्रताल के प्रसिद्ध मंदिर और ऐतिहासिक जगह:-